भाग -8
सहयोग मिलना श्री के. एल. जैन का
जब भाई सुशील जैन के साथ बैठकर यह स्पष्ट हो गया कि जो कुछ हो रहा था वह वास्तविक था और उसका समाधान ढूंढना आवश्यक था, तब संभवत: उसी ने श्री के. एल. जैन साहब का नाम सुझाया । श्री के. एल. जैन अध्यात्म साधना केंद्र के साथ लगभग आधी शताब्दी से जुड़े रहे हैं । न केवल तेरापंथ समाज बल्कि देश के एक प्रतिष्ठित उद्योगपति हैं और उससे अधिक वे एक सरल स्वभावी, विवेकशील और बुद्धिमान व्यक्तित्व के रूप में पहचाने जाते हैं । समाज का हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत हो, पारिवारिक हो अथवा सामाजिक, हर समस्या को लेकर उनके पास जाता रहा है और उनको संभवतः उसका समाधान करने में आनंद आता है और वही उनकी पहचान भी है ।
मेरे वे लगभग 25 से अधिक वर्षों से अनन्य मित्र हैं और मेरे मन में भी यह बात आई कि मैंने उनको पहले से ही विश्वास में क्यों नहीं लिया । मैंने अगले ही दिन सुबह उनसे संपर्क किया, वस्तु स्थिति से अवगत करवाया और शाम को ध्यान के समय केंद्र में आने का निवेदन किया, जिसकी उन्होंने सहज स्वीकृति दे दी । शाम को श्री के. एल. जैन साहब आए हुए थे और वे अपना भोजन ग्रहण कर रहे थे । मैंने ही उन से निवेदन किया था कि जब तक वे अपना भोजन संपन्न करेंगे, तब तक अनामिका का प्रयोग प्रारंभ हो चुका होगा और तब हम बीच में जाकर जो कुछ उसके साथ घटने की संभावनाएं हैं उसको देखने, जानने और समझने का प्रयास करेंगे ।
जैन साहब ने संभवतः अपना आधा भोजन भी समाप्त नहीं किया होगा कि ध्यान कक्ष से एक अन्य साधिका, जो कि अनामिका के परिपार्श्व में बैठकर ध्यान में उसके सहयोगी बनने की अपनी भूमिका निभा रही थी, दौड़ती हुई आई और उसने बताया कि अनामिका कष्ट में थी और उसके सहयोगी घबरा रहे थे । उसने हमसे शीघ्र चलने के लिए कहा ।
मैं और के. एल. जैन साहब तुरंत ध्यान कक्ष में पहुंचे और जिसका साक्षात्कार मैं प्रतिदिन कर रहा था, वही के. एल. जैन साहब ने भी देखा । अनामिका का कष्ट उसकी भाव भंगिमा से स्पष्ट दिखाई दे रहा था, उसकी पीड़ा सामने थी और उसके आंसू भी बह रहे थे ।
जैन साहब की वाणी में एक ओज है और उनके गायन में भी एक माधुर्य है । उन्होंने जैनों का उपसर्ग हरने वाला वही प्रसिद्ध स्त्रोत ‘उपसर्ग हरण’ का सस्वर उच्चारण करना शुरू कर दिया जिसमें हम सब लोगों ने भी पूरे मनोयोग से सहयोग देना प्रारंभ कर दिया और लगभग 15:20 मिनट बीतते-बीतते ऐसा लगने लगा कि अब अनामिका कष्ट से बाहर आ गई थी, यानी कि अब उपद्रवी शक्तियां चली गई थीं ।
बाद में लोगस्स (तीर्थंकरों की स्तुति) आदि का उच्चारण कर हमने अनामिका का प्रयोग संपन्न कराया और ध्यान से बाहर आकर उसने अपना अनुभव भी बांटा । हमने आचार्य भिक्षु की स्तुति के कुछ गीत गाये जिससे वातावरण सहज और प्रफुल्लित करने वाला हो गया । जैन साहब ने अपने स्वाभाविक तरीके से अनामिका का बहुत उत्साह वर्धन किया और उसे निडर रहकर उपद्रवी शक्तियों को चुनौती देने का आह्वान किया और ऐसा लगने लगा कि अब अनामिका भय रहित हो रही थी और वह इन शक्तियों को चुनौती देने को तत्पर थी । यही क्रम दूसरे दिन भी चला और जैन साहब के सहयोग से एक बार पुनः बात पटरी पर आते दिखाई दे रही थी । परंतु इधर जैन साहब का आना बंद हुआ और उधर उपद्रवी शक्तियों का पुरजोर अपनी शक्ति का प्रदर्शन प्रारंभ ।