भाग -3
बढ़ते चरण दिव्यात्मा से संवाद के
अनामिका को दिव्यात्मा से अब यह संकेत मिला कि उसे सुबह 3:30 बजे ध्यान करना चाहिए और मैंने भी अनामिका को सुझाव दिया कि उसे सुबह और शाम दोनों के ध्यान में एक निश्चित नियमितता रखनी चाहिए, समय की भी और स्थान की भी । अनामिका की रुचि और बढ़ती जा रही थी उसने भोजन भी संयमित करना प्रारंभ कर दिया था । अब वह सुबह 3:30 बजे उठकर लगभग 1:30 से 2 घंटे का ध्यान करती और इसी प्रकार शाम को भी लगभग 7:30 बजे डेढ़ से 2 घंटे का ध्यान करती ।
मैंने उसकी सहवर्ती शिक्षिकाओं एवं प्रशिक्षकों को यह निवेदन किया था कि उसके ध्यान करते समय दो या तीन साधक उसके साथ निश्चित रूप से उपस्थित रहें । कई बार अनामिका का ध्यान दीर्घ हो जाता था और उसे ध्यान से बाहर लाने के लिए हमें नवकार मंत्र का अथवा लोगस्स(एक जैन स्तोत्र) का बार-बार उच्चारण करना पड़ता । उससे वह कुछ देर के बाद ध्यान से बाहर आ जाती । कभी-कभी वह अपने आसन पर ही एक और लुढ़क भी जाती और उसे उसका भान भी नहीं हो पाता ।
संध्या काल में मैं भी कभी-कभी उपस्थित रहता । उसके चेहरे के भावों को देखकर मुझे समझ में आ जाता कि अब दिव्यात्मा उसके समक्ष है और वह उसका साक्षात्कार कर रही है ।
एक बार तो ऐसा भी हुआ कि जिस कक्ष के मध्य में बैठकर वह ध्यान कर रही थी तो उसके और मंच के बीच में से एक साधक गुजरा और ध्यान के बिल्कुल बीच से ही अनामिका ने एकदम उससे हटने के लिए कहा, क्योंकि ऐसा लगा जैसे वह साधक उसके और दिव्यात्मा के बीच में साक्षात्कार में अवरोध पैदा कर रहा था ।
एक दिन तो अनामिका ध्यान संपन्न करते ही उठकर, जहां दिव्यात्मा उसे दिखाई दे रही थी, उस स्थान की एक कपड़ा लेकर सफाई करने लगी थी, क्योंकि उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे वह स्थान पर्याप्त साफ नहीं था । पूरी प्रक्रिया बहुत ही आश्चर्यचकित करने वाली और अविश्वसनीय थी । न मुझे और न ही मेरे साथियों को ऐसी किसी घटना के साक्षात्कार का अथवा ऐसी परिस्थिति में किस प्रकार का व्यवहार किया जाना चाहिए उसका अनुभव था ।
परंतु, मेरा यह मानना जरूर था की अध्यात्म साधना केंद्र अध्यात्म की साधना की भूमि थी और इसमें ध्यान की गहराइयों में जाने का और संबंधित अनुभव के प्रयोग करने का एक क्रम जरूर होना चाहिए । तभी इससे संबंधित अनसुलझे प्रश्नों का कोई समाधान मिल सकता है और विकास की नई दिशाएं खुल सकती हैं ।
अनामिका जिस दौर से गुजर रही थी वह प्रसन्न करने वाला था यद्यपि इससे उसके कुछ साथियों को कठिनाई हो रही थी, जिनको सुबह-शाम उसके साथ एक तरह से अकारण ही समय गुजारना पड़ता था, और जिनको लगता था कि संभवतः वह मुझे प्रसन्न करने के लिए नाटक कर रही थी और उसके अनुभवों में सत्यता नहीं थी ।
अनामिका ने साथियों के व्यवहार को देखते हुए और व्यक्तिगत स्तर पर उपहास का पात्र बनने के कारण मुझे यह कहना भी प्रारंभ कर दिया था जी उसे अकेले ही ध्यान की अनुमति मिल जाए जिससे उसके साथियों को कष्ट ना हो और वह उपहास का पात्र ही ना बने ।
यह तो संभवतः बहुत ही साधारण चुनौती थी । अभी तो बहुत कुछ देखना बाकी था ।