भाग -12
जब चाहेंगे नहीं तो पाएंगे कैसे
बेंगलुरु से लौटने के बाद अनामिका की साधना और उपद्रव एक साथ पूर्ववत् ही चल रहे थे । इधर पर्युषण पर्व का समय आ गया था जो कि जैन परंपरा में साधना के विशिष्ट 8 दिन होते हैं और जैन साधु-साध्विओं के सान्निध्य में इस धर्म के अनुयायी एक स्थान पर एकत्रित होकर सामूहिक त्याग, तपस्या, साधना करते हैं ।
इन्हीं दिनों में श्री धनराज जी बैद, जो कि स्वयं एक विशिष्ट साधना कर रहे हैं, अध्यात्म साधना केंद्र परिसर में आकर रह रहे थे और अपनी साधना कर रहे थे । वे भी अनामिका की साधना और उपद्रवों के साक्षी बने और अपनी तरह से उन्होंने अनामिका को अभय रहने की और अपने संकल्प पर अडिग रहने की प्रेरणा दी । अपने विशिष्ट रूप में उन्होंने उसकी हिम्मत बंधाई । एक समय में तो रात्रि में जब अनामिका को उपद्रव होने लगा तो अन्य साथी लोग उन्हें उनके कमरे से बुला लाए थे और फिर उन्होंने अनामिका को मंगल पाठ सुनाया और उपद्रव के शांत होने में सहयोग प्रदान किया।
संवत्सरी के दिन सभी जैन धर्म के अनुयायी पूर्ण उपवास रखते हैं और एक तरह से संन्यास चर्या का पालन करते हैं । अतः उस दिन मैंने अनामिका को बता दिया था कि मैं उसकी रात्रि कालीन साधना में सम्मिलित नहीं हो पाऊंगा और अन्य साधकों को भी यह निर्देश दिया था कि वे अनामिका का सहयोग प्रदान करने में सावधानी बरतें ।
इसे संयोग कहिए या और कुछ, उस दिन अनामिका के मन में न जाने क्या आया कि रात्रि कालीन ध्यान के समय जब वह दिव्य आत्मा का साक्षात्कार कर रही थी तो उसने प्रार्थना की कि उसके सभी साथी, जो एक तरह से उसका मजाक उड़ाते थे, यदि उनको भी दिव्य आत्मा का साक्षात्कार हो सके तो उनका कल्याण भी होगा और वह मजाक का पात्र भी नहीं बनेगी ।
दिव्य आत्मा ने अनामिका को उस दिन यह संकेत दिया कि उस दिन के ध्यान के समय जो भी अन्य साधक अनामिका के साथ उपस्थित होगा उसे दिव्य आत्मा का साक्षात्कार हो सकेगा। परंतु ऐसा हो नहीं सका क्योंकि कोई भी अन्य साधक अनामिका की साधना के समय उपस्थित ही नहीं था । संभवत: मेरी अनुपस्थिति के बारे में आश्वस्त होकर उन्होंने उस दिन अनामिका का सहयोग देना अपेक्षित नहीं समझा और वे ध्यान कक्ष के बाहर ही बैठे रह गए ।
बाद में जब उन्हें अनामिका की दिव्य आत्मा से हुई वार्तालाप का पता चला तो हो सकता है कि उन्हें पछतावा भी हुआ हो । परंतु अनामिका को तो अभी और बहुत कुछ देखना सहना बाकी था ।