भाग -7
सहयोग स्वजनों का
अनामिका की इस अवस्था में मेरे सामने एक सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि वह जैन परंपरा से संबंध नहीं रखती थी और केवल एक प्रशिक्षक साधिका के रूप में केंद्र में रह रही थी । योग- ध्यान सीखना और सिखाना ही उसका कार्य था । अतः इस तरह के सघन प्रयोग में जाकर जहां कि अनपेक्षित अनजानी चुनौतियों से उसका सामना हो रहा था और जिसके परिणाम भी स्पष्ट नहीं थे, उसमें आगे जाने में उसे सहयोग दूं, प्रेरित करूं अथवा उसे लौट चलने के लिए बोलूं ।
कहना न होगा कि केंद्र से जुड़े अन्य पदाधिकारियों ने, जिनको भी इस प्रयोग के बारे में ज्ञान हुआ, बड़े स्पष्ट शब्दों में मुझसे यह कह दिया था कि मुझे अनामिका का यह प्रयोग बंद करवा देना चाहिए और उसे घर जाने के लिए भी बोल देना चाहिए । उसके साथ होने वाली कोई भी दुर्घटना केवल केंद्र को ही नहीं, जैन धर्म की इस तेरापंथ परंपरा को भी संकट में डाल सकती थी और पूरे समाज को विश्वास में लिए बगैर इस तरह का प्रयोग करना उचित नहीं था । उनकी बात तर्कपूर्ण भी थी और व्यावहारिक भी ।
परंतु मेरा लोभ मुझे ऐसे करने नहीं दे रहा था । मेरा मानना था कि अध्यात्म साधना केंद्र साधना की भूमि है और यहां साधना से संबंधित प्रयोग किए जाने चाहिएं और इससे संबंधित अगर कुछ चुनौतियां हो तो भी वे हमें स्वीकार करनी चाहिएं । परंतु कठिनाई यह थी कि उन चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए हम न तो प्रशिक्षित थे और न ही इससे संबंधित हमें अपेक्षित ज्ञान था ।
तभी अचानक मेरे मन में यह विचार आया कि क्यों नहीं मैं कुछ अन्य व्यक्तियों को भी इस में जोड़ूं और जो कुछ घट रहा है उसका साक्षात्कार करवाऊं । कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो कुछ मैं देख रहा था वह केवल मेरे मन का वहम था, जैसी कि अवधारणा बाकी कुछ लोगों की भी थी, और मैं अकारण ही इस दलदल में धंसता चला जा रहा था ।
यह सोचकर मैंने अपने छोटे भाई सुशील जैन से इस विषय की चर्चा की जो स्वयं भी ट्रस्टी के नाते पूर्व में अध्यात्म साधना केंद्र से जुड़ा रहा था और जिसे इस प्रकार की दैवी अथवा उपद्रवी शक्तियों के होने और उनके द्वारा इस प्रकार का प्रपंच करने पर बहुत ही कम विश्वास था । या दूसरे शब्दों में कहूं तो उसे लगता था कि इन सब बातों पर मैं सहज ही विश्वास कर लेता था, जो कि उचित नहीं था । अतः मैंने सोचा कि यदि मेरा अनुभव उसका भी अनुभव बने और उससे कुछ चिंतन-मंथन हो सके तो बात-चीत कर कोई रास्ता खोजा जा सकता था ।
भाई सुशील मेरे साथ शाम को केंद्र पर आया और उसने भी वही देखा जो कुछ मैं इतने दिनों से देख रहा था और उसका भी यही स्पष्ट अभिमत बना कि जो कुछ हो रहा था वह कोई नाटक अथवा कपोल कल्पना तो नहीं थी । यद्यपि उसका कोई निश्चित समाधान वह नहीं सुझा पाया ।
संभवतः उसके साथ बात कर जैन परंपरा का प्रसिद्ध कष्टों को हरने वाला स्त्रोत्र “उपसर्ग हरण” का प्रयोग हमने करना प्रारंभ कर दिया था और उसका प्रयोग करने के बाद ऐसा लगा था कि एक बार के लिए उपद्रवी शक्तियां शांत हो गई थीं । एक बार फिर आशा जगी थी कि संभवतः मार्ग मिल गया है । परंतु यह बहुत देर नहीं टिका ।