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यात्रा अनंत की

Home » यात्रा अनंत की

भाग -17

यात्रा अनंत की

अनामिका अब अपने उपद्रवों से बाहर आ चुकी थी और आनंद पूर्वक अपनी साधना कर रही थी । पहले तो जब अनामिका साधना करती थी और साक्षात्कार या उपद्रव के मिश्रित दौर से गुजरती थी तो मेरे मन में दिव्य आत्मा से साक्षात्कार के समय कभी-कभी प्रश्न कर शंका समाधान करने की बात रहती थी, परंतु अब चूंकि व्यवस्थित और निर्विघ्न साधना चल रही थी, अतः मैंने भी अपनी उत्कंठा पर अंकुश लगा दिया था और केवल साक्षी भाव से उसकी साधना को देख रहा था‌ ।

जैन परंपरा की आस्था के अनुसार हमारी पृथ्वी की तरह ही एक लोक और है जिसे महाविदेह क्षेत्र कहा जाता है और वहां भी इस मृत्युलोक की तरह ही मनुष्यों का आवास है । परंतु महाविदेह क्षेत्र की अपनी बहुत विशेषताएं हैं-जैसे कि वहां का वातावरण अत्यंत ही सम एवं सुखमय है । वहां के लोग अत्यंत साधना शील और शांत है और इससे भी आगे बढ़कर वहां हर समय तीर्थंकरों का वास रहता है और उनके उपदेश एवं सानिध्य प्राप्त होता रहता है, जबकि इस धरती पर भगवान महावीर अंतिम तीर्थंकर के बाद अब एक बहुत लंबे कालखंड के लिए तीर्थंकर का होना संभव नहीं है ।

इसी प्रकार जबकि इस धरती पर पुनः तीर्थंकर के आगमन तक मुक्ति प्राप्त करना संभव नहीं है, महाविदेह क्षेत्र में अब भी मुक्ति प्राप्त हो सकती है । अतः यदि शुभ कर्मों का योग हो तो आगामी जीवन में महाविदेह क्षेत्र में जन्म प्राप्त कर मुक्ति की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है । जैन परंपरा में वर्तमान जीवन में भी कुछ कुछ साधकों द्वारा महाविदेह क्षेत्र की यात्रा का वर्णन मिलता है ।

अनामिका निश्चित रूप से इस मान्यता से परिचित नहीं थी और मैंने उस से चर्चा करते हुए कहा कि यदि वह चाहे तो इस दिशा में एक प्रयास कर सकती है । इसी के अंतर्गत उसने एक दिन अपने ध्यान साधना के समय दिव्य आत्मा से यह निवेदन किया था कि क्या वे उसे महाविदेह क्षेत्र की यात्रा करवा सकते हैं और उन्होंने अवसर आने पर इसमें सहयोग देने का आश्वासन दिया था । मैंने अनामिका को दिव्य आत्मा के इस आश्वासन का स्मरण करवाया और कहा कि वह इस दिशा में पुन: प्रयास करे ।

अनामिका ने दिव्य आत्मा से इस हेतु निवेदन किया और एक दिन संध्याकाल में साधना करते हुए अनामिका को ऐसा प्रतीत हुआ कि वह किसी अन्य लोक में ही पहुंच गई थी । वहां उसने साधारण वस्त्रों में बहुत ही शांत प्रकृति के लोग देखे । दिगंबर अवस्था में एक अत्यंत तेजोमय दिव्य आत्मा को भ्रमण करते हुए देखा और यह भी कि वे किसी प्राकृतिक उच्च आसन पर बैठकर प्रवचन कर रहे थे, और उनके चारों ओर अनेक मनुष्य, जानवर आदि बैठकर प्रवचन श्रवण कर रहे थे । जैन मान्यता के अनुसार जब तीर्थंकर देशना करते हैं अथवा प्रवचन देते हैं तो उनके अतिशय के कारण मनुष्य पशु आदि सभी योनि के लोग एक साथ बैठकर उसे सुनते हैं और अपनी अपनी क्षमता के अनुसार समझ सकते हैं ।

वहां अनामिका ने अन्य अनेक देवी शक्तियों, आचार्य भिक्षु, आचार्य महाप्रज्ञ आदि का साक्षात्कार भी किया ‌। अनामिका के अनुसार पूरा दृश्य इतना मनोरम, इतना सुहावना था कि किसी भी प्रकार वह उसे शब्दों में व्यक्त करने की स्थिति में नहीं थी ।

अनामिका द्वारा समय-समय पर दैवी शक्तियों के साथ अनंत में अथवा महा विदेह क्षेत्र में साक्षात्कार का क्रम चलता रहा जिसकी चर्चा अपनी रुचि अनुसार वह समय-समय पर अपनी साधना के संपन्न होने पर कर देती थी । इधर मैं इस बात की प्रतीक्षा कर रहा था कि अनामिका का 100 दिन का साधना का क्रम पूरा हो जाए तो मैं दिव्य आत्मा से अपनी शंकाओं के समाधान का प्रयास करूं । तब तक मैं अनामिका की साधना में किसी प्रकार का व्यतिक्रम उपस्थित नहीं करना चाहता था ।

अनामिका की साधना के सौवें दिन उसे फिर दिव्य आत्मा का साक्षात्कार हुआ । आज उसने अनामिका को यह संदेश दिया कि अब उसकी साधना पूरी हो रही थी और उसे दिव्य आत्मा के साक्षात्कार की अपेक्षा नहीं थी, अतः अब आगे से उसे साक्षात्कार नहीं हो पाएगा । इस प्रकार अपना मौन आशीर्वाद देकर वे अदृश्य हो गईं ।

मेरी शंका समाधान की प्रतीक्षा अब कब समाप्त होगी यह कोई नहीं जानता ।

भाग-17  में लिखे गये उपरोक्त वर्णन से बहुत से पाठक असहमत हो सकते हैं और इसे कपोल- कल्पना मान सकते हैं । मेरा उन्हें इसे सत्य मानने का अथवा स्वीकार करने का कोई आग्रह नहीं है, और उनकी मान्यता को भी मैं पूरे सम्मान के साथ स्वीकार करता हूं, और इस पूरे वृत्तांत को यही विराम देता हूं ।

 

सम्पन्न

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